भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियाँ भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था इसलिये इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी है।
जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे। इन्होंने सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा शृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका एक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के यह ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग और ह्वेनसांग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था।
इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ किंवदन्तियां इस प्रकार है-
एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिए आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।
काव्य शैली
भर्तृहरि संस्कृत मुक्तककाव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर,रसपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियाँ जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
संघर्ष
प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द, ये तीन प्रमाण अर्थात् सत्य ज्ञान के साधन हैं। प्राय: सभी प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने ये तीनों प्रमाण माने हैं। जिस विषय में तीनों प्रमाणों का संवाद है, उस विषय में निर्णय लेना सरल बात है, जैसे की 'अग्नि ठडंक को नष्ट करती है', 'सूर्य चराचर सृष्टि है', 'सत्य में सारा विश्व प्रतिष्ठित स्थिर है', इत्यादि। परन्तु जिस विषय के बारे में प्रमाणों में विरोध उत्पन्न हाता है, उसके बारे में कौन-सा प्रमाण सबल और कौन-सा दुर्बल है, यह समस्या बड़ी ही कठिन है। ऐसे विषय में भर्तृहरि का कथन इस प्रकार है- प्रत्यक्ष और अनुमान, ये दो प्रमाण व्यावहारिक व्यक्त विषयों के बारे में कुछ सीमा तक ज़रूर निर्णायक होंगे, अर्थात् स्वीकार्य भी होंगे, परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म पारमार्थिक विषयों में इन प्रमाणों को बिल्कुल स्थान नहीं देना चाहिए। उन सूक्ष्म विषयों का निर्णय केवल अपौरुषेय वेद रूप शब्द प्रमाण से ही संभव है।
प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रत्यक्ष प्रमाण से केवल स्थूल और वर्तमानकालीन पदार्थ का ही ज्ञान होता है। सूक्ष्म, भूतकालीन, भविष्यकालीन और दूरस्थ वस्तुओं के बारे में वह प्रमाण पूर्णतया निरुपयोगी है। समूचे विश्व का मूल कारण क्या है? विश्व का और उसके कारण का सत्य स्वरूप क्या है। इस विषय में तथा धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, परलोक, साध शब्द और असाधु शब्द, अपभ्रंश आदि परोक्ष विषयों में वह प्रमाण सर्वथा दुर्बल है। यह सारे प्राचीन शास्त्रकारों की निर्विवाद मान्यता है। इसलिए भर्तृहरि ने प्रत्यक्ष का समर्थन या निराकरण कुछ भी नहीं किया है। सिर्फ़ एक दो स्थानों पर उसने उसका उल्लेख किया है। अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्षावलंबी ही है। इस कारण से सर्वथा अप्रत्यक्ष, अत्यन्त सूक्ष्म और जिस विषय का प्रत्यक्ष के साथ दूर से भी संबंध नहीं हो सकता, ऐसे विषय में अनुमान प्रमाण से निर्णय लेना अनर्थकारी होगा। ऐसा सिद्धांत भर्तृहरि ने स्पष्ट रूप से बताया है।