गोविन्द शंकर कुरुप या जी शंकर कुरुप (५ जून १९०१-२ फरवरी १९७८) मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं। उनका जन्म केरल के एक गाँव नायतोट्ट में हुआ था। ३ साल की उम्र से उनकी शिक्षा आरंभ हुई। ८ वर्ष तक की आयु में वे 'अमर कोश' 'सिद्धरुपम' 'श्रीरामोदन्तम' आदि ग्रन्थ कंठस्थ कर चुके थे और रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक पढ चुके थे। ११ वर्ष की आयु में महाकवि कुंजिकुट्टन के गाँव आगमन पर वे कविता की ओर उन्मुख हुये। तिरुविल्वमला में अध्यापन कार्य करते हुये अँग्रेजी भाषा तथा साहित्य का अध्यन किया। अँग्रेजी साहित्य इनको गीति के आलोक की ओर ले गया।
महाकवि के नाम से मशहूर चर्चित मलयाली कवि जी शंकर कुरुप भारतीय साहित्य के शीर्ष पुरस्कार साहित्य अकादमी से सम्मानित होने वाले पहले रचनाकार थे और उनके साहित्य में प्राचीन एवं आधुनिक विचारों का अद्भुत मेल दिखाई देता है। कुरुप के साहित्य में प्राचीन भारतीय मूल्यों और विचारों का सम्मान दिखाई देता है। समीक्षकों के अनुसार इसका कारण संस्कृत साहित्य में उनकी रुचि थी।
दरअसल बचपन में पढी संस्कृति रचनाओं से ही उन्हें साहित्य का चस्का लगा। बाद में उनका झुकाव अंगे्रजी साहित्य की ओर हुआ और उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को समझते हुए आधुनिक युगबोध को भी अपनाया।
मलयाली भाषा के इस विख्यात कवि का जन्म तीन जून 1901 को केरल के उजाड गांव के छोटे से परिवार में हुआ। पारंपरिक शिक्षा पद्धति के अनुरूप तीन वर्ष की आयु से ही उनका अक्षर ज्ञान शुरू हो गया और आठ वर्ष की आयु तक आते आते उन्होंने अमरकोष, श्रीरामोदंतम जैसे ग्रंथ ही नहीं महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य के कई श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। पारंपरिक शिक्षा में काव्यों के कंठस्थ होने के साथ ही 11 वर्ष की आयु से जी के भीतर काव्य की धारा फूट पडी। छात्र जीवन में महज 17 वर्ष की आयु में उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। उनके कुल मिलाकर 25 काव्य संग्रह मलयालम में प्रकाशित हुए।
शिक्षा के बाद 1921 में कुरुप तिरूविलामावाला में माध्यमिक स्कूल में अध्यापक बने। बाद में वह त्रिचूर के समीप सरकारी माध्यमिक अध्यापक प्रशिक्षक केन्द्र में अध्यापक बन गए। इसके बाद वह एरनाकुलम के महाराजा कालेज में मलयालम पंडित बन गए और इसी संस्थान से वह 1956 में प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हुए।
कविताओं और निबंध के अलावा कुरुप ने उमर खैयाम की रूबाइयों का मलयालम में अनुवाद किया। व्यावसायिक शुरुआत
शंकर कुरुप ने कोचीन राज्य की ‘पंडित’ परीक्षा पास करके अध्यापन की योग्यता प्राप्त की। वह दो वर्ष तक यहाँ-वहाँ अध्यापन का काम भी करते रहे। उनके कविता संग्रह, साहित्य कौतुकम् के पहले भाग की कुछ कविताएँ इसी काल की हैं। पर अपना अभीष्ट उन्हें तब प्राप्त हुआ, जब वह तिरूविल्वामला हाई स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। 1921 से 1925 तक शंकर कुरुप तिरूविल्वामला में रहें। प्रकृति के प्रति प्रारंभ में जो एक सहज आकर्षण भाव था, उसने इन चार वर्षों में अन्नय उपासक की भावना का रूप ले लिया। तिरूविल्वामला से कुरुप 1925 में चालाकुटि हाईस्कूल पहुंचे। उसी वर्ष 'साहित्य कौतुकम' का दूसरा भाग प्रकाशित हुआ। 1931 में 'नालें' शीर्षक कविता के प्रकाशन ने साहित्य जगत् में एक हलचल-सी मचा दी। कुछ लोगों ने उसे राजद्रोहात्मक तक कहा और उसके कारण 'महाराजा कॉलेज', एर्णाकुलम में प्राध्यापक पद पर उनकी नियुक्ति में भी एक बार बाधा आई। 1937 से 1956 में सेवानिवृत्त होने तक इस कॉलेज में वह मलयालम के प्राध्यापक रहे।
काव्य कृति
गोविंद शंकर कुरुप की काव्य कृति 'ओट्क्कुषठ' का प्रथम संस्करण वर्ष 1950 में प्रकाशित हुआ था। इसके मूल रूप में 60 कविताएँ थीं। वर्तमान रूप में 58 कविताएँ हैं। इन कविताओं के माध्यम से कवि के विभिन्न रूप भावों का परिचय मिलता है। कवि प्रकृति और उसकी शिव सुंदर रहस्यमयता की अनुभूति में प्रकृति के कण-कण और क्षण-क्षण की मुग्धकारी सौंदर्य छवि में परा चेतनशक्ति का आभास प्राप्त करता है। उसे जैसे साक्षात प्रतीति होती है, कि विराट प्रकृति और वह स्वयं एक अनादि व अनंत चैतन्य के अंश है। कई उत्कृष्ट प्रेम कविताएँ इसमें सम्मिलित है। लेकिन यह प्रेम भी नर–नारी का नहीं प्रकृति और निखिल ब्रह्म–चेतना का है, जिसका यह संपूर्ण सृष्टिचक्र प्रतिफलन है।
प्रकाशित कृतियाँ
कविता संग्रह - साहित्य कौतुकम् - चार खंड (१९२३-१९२९), सूर्यकांति (१९३२), नवातिथि (१९३५), पूजा पुष्पमा (१९४४), निमिषम् (१९४५), चेंकतिरुकल् मुत्तुकल् (१९४५), वनगायकन् (१९४७), इतलुकल् (१९४८), ओटक्कुष़ल्(१९५०), पथिकंटे पाट्टु (१९५१), अंतर्दाह (१९५५), वेल्लिल्प्परवकल् (१९५५), विश्वदर्शनम् (१९६०), जीवन संगीतम् (१९६४), मून्नरुवियुम् ओरु पुष़युम् (१९६४), पाथेयम् (१९६१), जीयुहे तेरंजेटुत्त कवितकल् (१९७२), मधुरम् सौम्यम् दीप्तम्, वेलिच्चत्तिंटे दूतम्, सान्ध्यरागम्।
निबंध संग्रह - गद्योपहारम् (१९४०), लेखमाल (१९४३), राक्कुयिलुकल्, मुत्तुम् चिप्पियुम (१९५९), जी. युटे नोटबुक, जी युटे गद्य लेखनंगल्।
नाटक - इरुट्टिनु मुन्पु (१९३५), सान्ध्य (१९४४), आगस्ट १५ (१९५६)।
बाल साहित्य - इलम् चंचुकल् (१९५४), ओलप्पीप्पि (१९४४), राधाराणि, जीयुटे बालकवितकाल्।
आत्मकथा - ओम्मर्युटे ओलंगलिल् (दो खंड)
अनुवाद - अनुवादों में से तीन बांग्ला में से हैं, दो संस्कृत से, एक अंग्रेज़ी के माध्यम से फ़ारसी कृति का और एक इसी माध्यम से दो फ़्रेंच कृतियों के। बांग्ला कृतियाँ हैं- गीतांजलि, एकोत्तरशती, टागोर। संस्कृत की कृतियाँ हैं- मध्यम व्यायोग और मेघदूत, फारसी की रुबाइयात ए उमर ख़ैयाम और फ़्रेंच कृतियों के अंग्रेजी नाम हैं- द ओल्ड मैन हू डज़ नॉट वांट टु डाय, तथा द चाइल्ड व्हिच डज़ नॉट वॉन्ट टु बी बॉर्न।