कुम्भनदास अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंददास जी के ही समकालीन थे। ये पूरे विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। ये मूलत: किसान थे। अष्टछाप के कवियों में सबसे पहले कुम्भनदास ने महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने के बाद श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। ये किसी से दान नहीं लेते थे। इन्हें मधुरभाव की भक्ति प्रिय थी और इनके रचे हुए लगभग 500 पद उपलब्ध हैं।
कुम्भनदास का जन्म सन् 1468 ई. में, सम्प्रदाय प्रवेश सन् 1492 ई. में और गोलोकवास सन् 1582 ई. के लगभग हुआ था। पुष्टिमार्ग में दीक्षित तथा श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तनकार के पद पर नियुक्त होने पर भी उन्होंने अपनी वृत्ति नहीं छोड़ी और अन्त तक निर्धनावस्था में अपने परिवार का भरण-पोषण करते रहे। परिवार में इनकी पत्नी के अतिरिक्त सात पुत्र, सात पुत्र-वधुएँ और एक विधवा भतीजी थी। अत्यन्त निर्धन होते हुए भी ये किसी का दान स्वीकार नहीं करते थे। राजा मानसिंह ने इन्हें एक बार सोने की आरसी और एक हज़ार मोहरों की थैली भेंट करनी चाही थी परन्तु कुम्भनदास ने उसे अस्वीकार कर दिया था। प्रसिद्ध है कि एक बार अकबर ने इन्हें फ़तेहपुर सीकरी बुलाया था। अकबर को विश्वास हो गया कि कुम्भनदास अपने इष्टदेव को छोड़कर अन्य किसी का यशोगान नहीं कर सकते फिर भी उन्होंने कुम्भनदास से अनुरोध किया कि वे कोई भेंट स्वीकार करें, परन्तु कुंभन दास ने यह माँग की कि आज के बाद मुझे फिर कभी न बुलाया जाय। कुंभनदास के सात पुत्र थे। परन्तु गोस्वामी विट्ठलनाथ के पूछने पर उन्होंने कहा था कि वास्तव में उनके डेढ़ ही पुत्र हैं क्योंकि पाँच लोकासक्त हैं, एक चतुर्भुजदासभक्त हैं और आधे कृष्णदास हैं, क्योंकि वे भी गोवर्धन नाथ जी की गायों की सेवा करते हैं।
कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। इन पदों की संख्या अधिक है। जन्माष्टमी, राधा की बधाई, पालना, धनतेरस, गोवर्द्धनपूजा, इन्हद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है। कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं।
श्रीनाथ जी की सेवा व गायन
श्रीनाथ जी के मन्दिर में कुम्भनदास नित्य नये पद गाकर सुनाने लगे। 'पुष्टि सम्प्रदाय' में सम्मिलित होने पर उन्हेंं कीर्तन की ही सेवा दी गयी थी। कुम्भनदास भगवत्कृपा को ही सर्वोपरि मानते थे, बड़े-से-बड़े घरेलू संकट में भी वे अपने आस्था-पथ से कभी विचलित नहीं हुए। श्रीनाथ जी के श्रृंगार सम्बन्धीे पदों की रचना में उनकी विशेष अभिरुचि थी। एक बार वल्लभाचार्य जी ने उनके युगल लीला सम्बन्धी पद से प्रसन्न होकर कहा था कि- "तुम्हें तो निकुंज लीला के रस की अनुभूति हो गयी।" कुम्भनदास महाप्रभु की कृपा से गद्गद होकर बोल उठे कि- "मुझे तो इसी रस की नितान्त आवश्यकता है।" महाप्रभु वल्लभाचार्य के लीला-प्रवेश के बाद कुम्भनदास गोसाईं विट्टलनाथ के संरक्षण में रहकर भगवान का लीला-गान करने लगे। विट्ठलनाथ महाराज की उन पर बड़ी कृपा थी। वे मन-ही-मन उनके निर्लोभ जीवन की सराहना किया करते थे। संवत 1602 विक्रमी में 'अष्टछाप के कवियों' में उनकी गणना हुई। बड़े-बड़े राजा-महाराजा आदि कुम्भनदास का दर्शन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वृन्दावन के बड़े-बड़े रसिक और सन्त महात्मा उनके सत्संग की उत्कृष्ट इच्छा किया करते थे। उन्होंने भगवद्भक्ति का यश सदा अक्षुण्ण रखा, आर्थिक संकट और दीनता से उसे कभी कलंकित नहीं होने दिया।
मानसिंह द्वारा सराहना
संवत 1620 विक्रमी में महाराज मानसिंह ब्रज आये थे। उन्होंने वृन्दावन के दर्शन के बाद गोवर्धन की यात्रा की। श्रीनाथ जी के दर्शन किये। उस समय मृदंग और वीणा के साथ कुम्भनदास जी कीर्तन कर रहे थे। राजा मानसिंह उनकी पद-गान शैली से बहुत प्रभावित हुए। वे उनसे मिलने जमुनावतो गये। कुम्भनदास की दीन-हीन दशा देखकर वे चकित हो उठे। कुम्भनदास भगवान के रूप-चिन्तन में ध्यानस्थ थे। आंख खुलने पर उन्होंने भतीजी से आसन और दर्पण मांगे, उत्तर मिला कि ‘आसन (घास) पड़िया खा गयी, दर्पण (पानी) भी पी गयी।' आशय यह था कि पानी में मुख देखकर वे तिलक करते थे। महाराजा मानसिंह को उनकी निर्धनता का पता लग गया। उन्होंने सोने का दर्पण देना चाहा, भगवान के भक्त ने अस्वीकार कर दिया, मोहरों की थैली देनी चाही, विश्वपति के सेवक ने उसकी उपेक्षा कर दी। चलते समय मानसिंह ने जमनुवतो गांव कुम्भनदास के नाम करना चाहा, पर उन्होंने कहा कि "मेरा काम तो करील के पेड़ और बेर के वृक्ष से ही चल जाता है।" राजा मानसिंह ने उनकी नि:स्पृहता और त्याग की सराहना की, उन्होंने कहा कि "माया के भक्त तो मैंने बहुत देखे हैं, पर वास्तविक भगवद्भक्त तो आप ही हैं।"
मधुर-भाव की भक्ति
कुम्भनदास को निकुंजलीला का रस अर्थात् मधुर-भाव की भक्ति प्रिय थी और इन्होंने महाप्रभु से इसी भक्ति का वरदान माँगा था। अन्त समय में इनका मन मधुर–भाव में ही लीन था, क्योंकि इन्होंने गोस्वामीजी के पूछने पर इसी भाव का एक पद गाया था। पुन: पूछने पर कि तुम्हारा अन्त:करण कहाँ है, कुम्भनदास ने गाया था-
रसिकिनि रस में रहत गड़ी।
कनक बेलि वृषभान नन्दिनी स्याम तमाल चढ़ी।।
विहरत श्री गोवर्धन धर रति रस केलि बढ़ी ।।
प्रसिद्ध है कि कुम्भनदास ने शरीर छोड़कर श्रीकृष्ण की निकुंज-लीला में प्रवेश किया था।