प्रेमचन्द के साथ यदि किसी साहित्यकार का नाम लिया जाता है, तो वे हैं, जैनेन्द्र कुमार । जैनेन्द्र कुमार ने अनेक उपन्यास, कहानी एवं निबन्धों की रचना की है । शिल्प और वस्तु संगठन की दृष्टि से उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को विशिष्ट दृष्टि प्रदान की । हिन्दी उपन्यास विधा को प्रेमचन्द के बाद उन्होंने नया मोड़ दिया । उनकी नयी और मनोवैज्ञानिक विचारधारा के कारण उनकी आलोचना भी हुई, किन्तु परवर्ती रचनाकारों ने उनको ”मानव मन व नये युग का मसीहा” कहा ।
अलीगढ़ में 2 जनवरी, 1905 को जन्मे जैनेन्द्र ने बाल्यावस्था से ही अलग तरह का जीवन जिया। इनके मामा ने हस्तिनापुर में गुरुकुल स्थापित किया था, वहीं इनकी पढ़ाई भी हुई। दो वर्ष की आयु में ही पिता को खो चुके थे। जैनेन्द्र तो बाद में बने, आपका मूलनाम 'आनंदी लाल' था। उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई। 1921 में पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। 1923 में राजनीतिक संवाददाता हो गए। ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। छूटने के कुछ समय बाद लेखन प्रारंभ किया।
सन् 1930-1932 में उन्होंने जेल यातनाएं सहीं । विनोबा भावे, लाला भगवानदास, श्रीमती सरोजनी नायडू के साथ उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम यूनिटी कोन्फ़्रेंस में भाग लिया । सन् 1919 में उनका विवाह हुआ । वे प्रेमचन्द से विशेष प्रभावित थे । उन्होंने सन् 1929 में ”फांसी” नामक कथा-संग्रह लिखा । उनकी रचनाओं में कहानी संग्रह- ”पाजेब”, “एक रात”, ”दो चिड़ियां”, “स्पर्धा” तथा उपन्यासों में ”कल्याणी”, ”सुनीता”, ”त्यागपत्र”, ”विवर्त”, ”अनाम स्वामी” प्रमुख हैं । अनुदित उपन्यास “यामा” है । निबन्धों में: ”मंथन”, “सोच-विचार”, ”बंगलादेश एक यक्ष प्रश्न” है । उन्होंने कुछ संस्मरण व जीवनियां भी लिखी है । 1973 में उनको दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा डी॰लिट॰ की मानद उपाधि प्रदान की गयी । उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है । उनकी रचनाओं में मानव मन की विभिन्न परिस्थितियों एवं दमित वासनाओं का चित्रण मनोवैज्ञानिक रूप से मिलता है ।
वे मानव मन के सूक्ष्म चितेरे हैं । उनकी भाषा में सहजता और रोचकता है । कहीं-कहीं पर नव-विन्यास और दार्शनिकता के कारण उनकी शैली गम्भीर, जटिल एवं उच्चस्तरीय हो गयी है । अपनी बेबाकी लेखन-कला के कारण वे हमेशा चर्चा में रहे ।
साहित्यिक परिचय
'फाँसी' इनका पहला कहानी संग्रह था, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार बना दिया। उपन्यास 'परख' से सन् 1929 में पहचान बनी। 'सुनीता' का प्रकाशन 1935 में हुआ। 'त्यागपत्र' 1937 में और 'कल्याणी' 1939 में प्रकाशित हुए। 1929 में पहला कहानी-संग्रह 'फाँसी' छपा। इसके बाद 1930 में 'वातायन', 1933 में 'नीलम देश की राजकन्या', 1934 में 'एक रात', 1935 में 'दो चिड़ियाँ' और 1942 में 'पाजेब' का प्रकाशन हुआ। अब तो 'जैनेन्द्र की कहानियां' सात भागों उपलब्ध हैं। उनके अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं- 'विवर्त,' 'सुखदा', 'व्यतीत', 'जयवर्धन' और 'दशार्क'। 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच-विचार', 'काम और परिवार', 'ये और वे' इनके निबंध संग्रह हैं। तालस्तोय की रचनाओं का इनका अनुवाद उल्लेखनीय है। 'समय और हम' प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।
समालोचन
जैनेन्द्र अपने पथ के अनूठे अन्वेषक थे। उन्होंने प्रेमचन्द के सामाजिक यथार्थ के मार्ग को नहीं अपनाया, जो अपने समय का राजमार्ग था। लेकिन वे प्रेमचन्द के विलोम नहीं थे, जैसा कि बहुत से समीक्षक सिद्ध करते रहे हैं; वे प्रेमचन्द के पूरक थे। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को साथ-साथ रखकर ही जीवन और इतिहास को उसकी समग्रता के साथ समझा जा सकता है। जैनेन्द्र का सबसे बड़ा योगदान हिन्दी गद्य के निर्माण में था। भाषा के स्तर पर जैनेन्द्र द्वारा की गई तोड़-फोड़ ने हिन्दी को तराशने का अभूतपूर्व काम किया। जैनेन्द्र का गद्य न होता तो अज्ञेय का गद्य संभव न होता। हिन्दी कहानी ने प्रयोगशीलता का पहला पाठ जैनेन्द्र से ही सीखा। जैनेन्द्र ने हिन्दी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया `सिंटेक्स' दिया। आज के हिन्दी गद्य पर जैनेन्द्र की अमिट छाप है।--रवींद्र कालिया जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक तत्वों के समावेश से दूरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों से अप्रभावित लगते हैं और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित। उनकी प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार भी प्रायः इन्हीं गतियों के अनुरूप होते हैं। इसी का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की भरमार नहीं दिखाई देती। पात्रों की अल्पसंख्या के कारण भी जैनेंद्र के उपन्यासों में वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता रही है
क्रांतिकारिता तथा आतंकवादिता के तत्व भी जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं।
मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, विवर्त, सुखदा, व्यतीत, जयवर्धन
कहानी संग्रह : फाँसी, वातायन, नीलम देश की राजकन्या, एक रात, दो चिड़ियाँ, पाजेब, जयसंधि
निबंध संग्रह : प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, साहित्य का श्रेय और प्रेय
संपादन : साहित्य चयन, विचार वल्लरी
सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार, हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार, हस्तीमल डालमिया पुरस्कार, पद्म भूषण
निधन
24 दिसंबर 1988, नई दिल्ली