सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) उर्दू लेखक थे, जो अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और चर्चित टोबा टेकसिंह के लिए प्रसिद्ध हुए। कहानीकार होने के साथ-साथ वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक और पत्रकार भी थे। अपने छोटे से जीवनकाल में उन्होंने बाइस लघु कथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित किए।
कहानियों में अश्लीलता के आरोप की वजह से मंटो को छह बार अदालत जाना पड़ा था, जिसमें से तीन बार पाकिस्तान बनने से पहले और बनने के बाद, लेकिन एक भी बार मामला साबित नहीं हो पाया। इनके कुछ कार्यों का दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।
उर्दू के प्रसिद्ध कहानीकार सआदत हसन मन्टो (Saadat Hasan Manto) का जन्मदिन 11 मर्ई को पड़ता है। इसी दिन 1914 को इसका जन्म जिला लुुधियाना में समराला के एक गांव में हुआ। मन्टो की जन्म शताब्दी बड़ी धूमधाम से इसके ग्रामवासियों ने मनाई बड़े-बड़े साहित्यकारों व शायरों की उपस्थिति में। समारोह शानदार ढंग से चल ही रहा था कि स्वर्गीय अफसाना निगार की जन्म स्थली का विवाद चल पड़ा। बहुत से उपस्थित सम्माननीय जन इस मत के थे कि यह गांव उनके जन्म का वास्तविक स्थल था ही नहीं। उनकी अपनी बेटी, जो पति समेत वहां मौजूद थी, उसकी भी यही राय थी। मुझे आगे नहीं मालूम कि यह विवाद सुलझा कैसे।
खैर, मन्टो के छोटे से जीवन, कुल 43 वर्ष के ज्यादातर साल अमृतसर, बम्बई (तब यही नाम था) तथा लाहौर में बीते। अमृतसर शहर तो मन्टो के कहानी साहित्य का एक जीता-जागता चरित्र जैसा ही है। मन्टो के अनेकों अफसानों में या तो अमृतसर का जिक्र है या लाहौर और बम्बई का। यहीं के गली-कूचे, बदनाम बाजार, तांगे वाले और देश के स्वाधीनता संग्राम में जूझ रहे आम लोग मन्टो के अफसानों में वह रंग भरते हैं जिनसे सआदत हसन मन्टो भारत व पाकिस्तान के उन तीन महान साहित्यकारों में गिनेजाते हैं जिन्हें दोनों ही देश अपनी विभूति बता कर गौरवान्वित होते हैं। अन्य दो डा. सर मोहम्मद इकबाल व फैज अहमद फैज-भारत उपमहाद्वीप के दो बड़े शायर हैं।
सआदत हसन मन्टो को खुदा ने बहुत थोड़ी उम्र दी। अपने 43 वर्षों में फिर भी मन्टो ने अपने साहित्यिक विरसे को इतना महान बना दिया कि बड़े-बड़े लेखक भी रश्क करें। ऐसा क्या था इस ‘मुफलिस’ कहानीकार में जो यूरोप के पेंटर वैन गॉग की तरह उम्र भर पैसे-पैसे के लिए तरसता रहा?
रचनात्मकता
एक तरफ मंटो की साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और दूसरी तरफ उनके दिल में आगे पढ़ने की ख़्वाहिश पैदा हो गई। आख़िर फ़रवरी, 1934 को 22 साल की उम्र में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया। यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी। यहीं मंटो की मुलाक़ात अली सरदार जाफ़री से हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया। मंटो ने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। “तमाशा” के बाद कहानी “इनक़िलाब पसंद” (1935) नाम से लिखी, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुई।
कार्यक्षेत्र
1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, उसका शीर्षक था “आतिशपारे”। अलीगढ़ में मंटो अधिक नहीं ठहर सके और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गये। वहाँ से वह लाहौर चले गये, जहाँ उन्होंने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया। जनवरी, 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरू किया। दिल्ली में मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहे, लेकिन यह सफर उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था। यहाँ उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए 'आओ', 'मंटो के ड्रामे', 'जनाज़े' तथा 'तीन औरतें'। उसके विवादास्पद 'धुआँ' और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह 'मंटो के मज़ामीन' भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुआ। मंटो जुलाई, 1942 में लाहौर को अलविदा कहकर बंबई पहुँच गये। जनवरी, 1948 तक बंबई में रहे और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन का कार्य किया।
पाकिस्तान में प्रवासन
मंटो और उनके परिवार के लाखों मुसलमानों में से एक थे, जिन्होंने पाकिस्तान के मुस्लिम बहुसंख्यक राष्ट्र के लिए वर्तमान दिन भारत छोड़ दिया था।
लाहौर में जीवन
जब मंटो बॉम्बे से लाहौर पहुंचे, तो वे पास रहते थे और फैज अहमद फैज, नासिर काजमी, अहमद राही और अहमद नदीम कास्मी सहित कई प्रमुख बुद्धिजीवियों के साथ जुड़े थे। वे सभी लाहौर के प्रतिष्ठित पाक टी हाउस में इकट्ठा होते थे, 1 948-49 में कुछ सबसे ज्वलंत साहित्यिक वादों और उत्साही राजनीतिक तर्कों के साक्षी थे। पाक चाय हाउस उन लोगों की यादों में एक विशेष स्थान रखती है जो लाहौर के जीवंत साहित्यिक और सांस्कृतिक अतीत के बारे में जानते हैं। "बिल्कुल कोई बाहरी प्रभाव नहीं था और लोग किसी भी विषय पर अपनी राय साझा करेंगे, बिना सैन्य तानाशाह शासन के दौरान भी।"
विरासत
18 जनवरी 2005 को, उनकी मौत की पचासवें वर्षगांठ, मंटो एक पाकिस्तानी डाक टिकट पर स्मारक था।
14 अगस्त 2012 को पाकिस्तान की स्वतंत्रता दिवस है, सादत हसन मंटो को मरणोपरांत पाकिस्तान सरकार द्वारा निशान-ए-इम्तियाज पुरस्कार (पाकिस्तान पुरस्कार के लिए विशिष्ट सेवा) का सम्मान दिया गया था।
मंटो एक लेखक थे जिनकी जीवन कहानी गहन चर्चा और आत्मनिरीक्षण का विषय बन गई थी। पिछले दो दशकों के दौरान कई चरण प्रस्तुतियों को पोस्ट विभाजन युग की कठोर सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के साथ संघर्ष में अपने चरित्र को प्रस्तुत करने के लिए किया गया था। डैनीश इकबाल के मंच प्ले 'एक कुत्ते की कहानी' एक ऐसा उत्पादन है जो मंटो को उनके जन्म शताब्दी के अवसर पर एक नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया।
मंटो की प्रसिद्ध रचनाएँ
टोबा टेकसिंह , लघुकथा
Atishparay (Nuggets of Fire) – 1936
Chugad
मंटो के अफसाने – 1940
धुआँ – 1941
अफसाने और ड्रामे – 1943
लज़्ज़त-ए-संग - -1948
स्याह हाशिए -1948
बादशाहत का खात्मा – 1950
खाली बोतलें – 1950
लाऊड स्पीकर (Sketches)
गंजे फरिश्ते (Sketches)
Manto ke Mazameen
नमरूद की खुदाई – 1950
ठंडा गोश्त – 1950
याज़िद – 1951
पर्दे के पीछे – 1953
सड़क के किनारे – 1953
बग़ैर उनवान के (बिना शीर्षक) – 1954
बग़ैर इजाज़त – 1955
बुर्क़े – 1955
Phunduney (Tassles) – 1955
सरकंडों के पीछे -1955
शैतान – 1955
शिकारी औरतें – 1955
रत्ती, माशा, तोला" -1956
काली सलवार – 1961
मंटो की बेहतरीन कहानियाँ – 1963
ताहिरा से ताहिर – 1971