स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म महाशिवरात्रि के दिन सन 1899 में हुआ था। वंश परम्परा से ये जुझौतिया ब्राह्मण थे। जुझौतिया शब्द यौधेय का अपभ्रंश है। यौधेय के गणराज्य सिकंदर की चढ़ाई के समय पंजाब में थे। इन्होंने 325 ई.पू. में सिकंदर के दाँत खट्टे किए थे। ऐसा भी खुदाई से विदित होता है कि यौधेय गण अस्त्र-शस्त्र संचालन में कुशल आयुधाजीवी ब्राह्मण थे। ब्राह्मणों के पेशागत परिवर्तन के उदाहरण वैदिक काल में परशुराम, द्रोण, कृप, अश्वत्थामा, वृत्र, रावण एवं ऐतिहासिक काल में शुंग, शातवाहन, कण्व, वाकाटक, खारवेल, भारशीव का एक अंश, बंगाल के सेन, अंग्रेजी काल में काशी की रियासत, दरभंगा, बेतिया, हथुआ, मल्हेया, सांबे, मंझवे, माँझा, बैजनाथपुर, अहियापुर, धारहरा, मनातू इत्यादि के जमींदार हैं। कालक्रम में जुझौतिया ब्राह्मण मध्य प्रदेश के जैजाक भुक्ति क्षेत्र बुंदेलखण्ड आए। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण (1865 की जनगणना) की एक शाखा हैं। मालवा के पठार में बसने के कारण इन्हें इलाहाबाद में मालवीय भी कहा जाता है। स्वामी के पूर्वज बुंदेलखण्ड से गाजीपुर के देवा गाँव आए एवं अपने समतुल्य ब्राह्मण की दूसरी उपजाति भूमिहार ब्राह्मणों (बाभन) से रक्त-सम्बन्ध द्वारा घुल-मिल गए। स्वामी जी का जन्म एक निम्न मध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ। उनका विशिष्ट मूल एवं विशिष्ट वर्गाधार उनके जीवन चरित्र को आँकने की कुंजी है। वे एकांत प्रिय, सरलचित्त, सत्यनिष्ठ, विचारक, जिज्ञासु, साधनारत, धुनी, नि:संग अनासक्त, कर्मशील, योद्धा क्रांतिकामी, सक्रिय वेदांत के मर्मज्ञ, मीमांसा के ज्ञाता, बहुपठित शास्त्रज्ञ, वर्ग-संघर्ष के पैरोकार, व्यावहारिक मार्क्सवाद के जानकार, राष्ट्रवादी-वेदांती मार्क्सवादी थे।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे। घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। ये वह समय था जब स्वामी जी भारत को समझ रहे थे। इस क्रम में उन्हें एक अजूबा अनुभव हुआ। किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है। युवा संन्यासी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर उन्मुख होता है। वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुटे रहे। इस रूप में देखें तो भारत के इतिहास में संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने और उसका सफल नेतृत्व करने का एक मात्र श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्तकराने का अभियान जारी रखा। उनकी बढ़ती सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की सुविधाभोगी प्रवृति को देखकर स्वामीजी हैरान हो गए। स्वभाव से हीं विद्रोही स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया। जब1934 में बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया। विद्रोही सहजानंद ने किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित कर दिया।
काशी प्रवास
वहाँ शंकराचार्य की परंपरा के स्वामी अच्युतानन्द से दीक्षा लेकर संन्यासी बन गये। बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थों के भ्रमण और गुरु की खोज में बिताया। 1909 में पुनः काशी पहुंचकर दंडी स्वामी अद्वैतानन्द से दीक्षा ग्रहणकर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने। इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। दरअसल काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके सन्न्यास पर सवाल उठा दिया। उनका कहना था कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये प्रमाणित किया कि भूमिहार भी ब्राह्मण ही हैं और हर योग्य व्यक्ति सन्न्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता है। काफ़ी शोध के बाद उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय नामक ग्रंथ लिखा जो आगे चलकर ब्रह्मर्षि वंश विस्तर के नाम से सामने आया। इसके ज़रिये उन्होंने अपनी धारणा को सैद्धांतिक जामा पहनाया।
कांग्रेस से जुड़ाव
स्वामीजी के जीवन का दूसरा अध्याय तब शुरू होता है, जब 5 दिसम्बर 1920 को पटना में कांग्रेस नेता मौलाना मजहरुल हक के आवास पर महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात होती है। गांधीजी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल होते हैं। साल के भीतर हीं वे ग़ाज़ीपुर ज़िला कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गये और कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और एक साल की कैद हुई। जेल से रिहा होने के बाद बक्सर के सिमरी और आसपास के गांवों में बड़े पैमाने पर चरखे से खादी वस्त्र का उत्पादन कराया। ब्राह्मणों की एकता और संस्कृत शिक्षा के प्रचार पर उनका ज़ोर रहा। सिमरी में रहते हुए सनातन धर्म के जन्म से मरण तक के संस्कारों पर आधारित 'कर्मकलाप' नामक 1200 पृष्ठों के विशाल ग्रंथ की हिन्दी में रचना की। काशी से कर्मकलाप का प्रकाशन किया।
जीवन-वृत्त एवं कृतित्व
1889 : ई. महाशिवरात्रि के दिन गाजीपुर जिले के देवा ग्राम में जन्म।
1892 : ई. माता का देहान्त।
1898 : ई. जलालाबाद मदरसा में अक्षरारम्भ।
1901 : ई. लोअर तथा अपर प्राइमरी की 6 वर्ष की शिक्षा 3 वर्षों में समाप्त।
1904 : ई. मिडिल परीक्षा में सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त कर छात्रवृत्ति प्राप्ति।
1905 : विवाह (वैराग्य से बचाने के लिए)
1906 : पत्नी का स्वर्गवास।
1907 : पुन: विवाह की बात जानकर महाशिवरात्रि को घर से निष्क्रमण तथा काशी पहुँचकर दसनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानन्द से प्रथम दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बने।
1908 : प्राय: वर्षपर्यन्त गुरु की खोज में भारत के तीर्थों का भ्रमण।
1909 : पुन: काशी पहुँचकर दशाश्वमेधा घाट स्थित श्री दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती बने।
1910 : से 1912 तक-काशी तथा दरभंगा में संस्कृत साहित्य व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा का गहन अध्यायन।
1949 : महाशिवरात्रि को बिहटा (पटना) में हीरक जयन्ती समारोह समिति द्वारा साठ लाख रुपये की थैली भेंट तथा उसका तदर्थ दान।
1949 : 9 अप्रैल (रामनवमी) को अयोध्या में सम्पन्न अ. भा. विरक्त महामण्डल के प्रथम अधिवेशन में शंकराचार्य के बाद अध्यक्षीय भाषण।
1950 : अप्रैल में रक्तचाप से विशेष पीड़ित होकर प्राकृतिक चिकित्सार्थ डॉ॰ शंकर नायर (मुजफ्फरपुर) से चिकित्सा प्रारम्भ। मई-जून से अपने अनन्य अनुयायी किसान नेता पं. यमुना कार्यी (देवपार, पूसा, समस्तीपुर) के निवास पर निवास।
1950 : 26 जून को पुन: डॉ॰ नायर को दिखाने आने पर मुजफ्फरपुर में ही पक्षाघात का आक्रमण तथा 26 जून की रात्रि 2 बजे प्रसिद्ध वकील पं. मुचकुन्द शर्मा के निवास पर देहान्त। 27/6/50 को शव का पटना गाँधी मैदान में लाखों लोगों द्वारा अन्तिम दर्शन डॉ॰ महमूद की अध्यक्षता में शोकसभा, नेताओं द्वारा श्रध्दांजलि।