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नरेन्द्र देव जीवनी - Biography of Narendra Deva in Hindi Jivani

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जन्म 31 अक्टूबर 1889 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर ग्राम में हुआ था | उनके पिता श्री बलदेव प्रसिद्ध वकील थे | बालक का बचपन में नाम रखा गया -अविनाशी लाल | कुछ समय बाद उनके पिता अपने पैतृक नगर फैजाबाद आ गये | यही पर अविनाशी लाल का बचपन बीता और यही पिता के एक मित्र ने नाम बदलकर उनका नाम नरेंद्र देव रख दिया |


कांग्रेस द्वारा यह निश्चय करने पर कि उसके अंदर कोई अन्य दल नही रहेगा ,समाजवादी पार्टी के अपने साथियो के साथ आचार्य जी (Acharya Narendra Dev) ने भी कांग्रेस पार्टी छोड़ दी | पार्टी छोड़ने के साथ ही पार्टी के टिकट पर जीती विधानसभा सीट से त्यागपत्र देकर उन्होंने राजनैतिक नैतिकता अक एक नया आदर्श स्थापित किया था | राजनितिक चेतना और विद्वता का आचार्य जी में असाधारण सामंजस्य था | वे संस्कृत ,हिंदी ,अंग्रेजी , ,फारसी , पाली ,बांगला ,फ्रेंच और प्राकृत भाषाए बहुत अच्छी तरह से जानते थे |


काशी विद्यापीठ के बाद आचार्य जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में शिक्षा जगत पर अपनी अमिट छाप छोडी | बौद्ध दर्शन के अध्ययन में आचार्य नरेन्द्र देव की विशेष रूचि थी | इस विषय में उनके ग्रन्थ “बौद्ध धर्म दर्शन” और “अभिधर्म कोष” प्रसिद्ध है | आचार्य जी उच्च कोटि के वक्ता भी थे | उनके महत्वपूर्ण भाषणों के संकलन है “राष्ट्रीयता और समाजवाद” “समाजवाद:लक्ष्य तथा साधन” , “सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद”, “भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास”, “युद्ध और भारत” तथा “किसानो का सवाल” |


नरेंद्र देव जी ने “संघर्ष” और “समाज” नामक साप्ताहिको , “जनवाणी” मासिक एवं “विद्यापीठ” त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया | आचार्य जी जीवनभर दमे के मरीज रहे | इसी रोग के कारण 19 फरवरी 1956 को मद्रास के एडोर में उनका देहांत हो गया | वहा वे अपने मित्र और मद्रास के तत्कालीन श्री प्रकाश के निमन्त्रण पर स्वास्थ्य लाभ लेने के लिए गये थे |


लेखन एवं रचनाएँ


राजनीति के अलावा, दूसरी प्रवृत्ति, उन्हीं के शब्दों में, "लिखने पढ़ने की ओर" रही है। इस दिशा में आचार्य नरेंद्रदेव जी का योगदान अत्यंत महत्व का है। विद्यापीठ के द्वारा पिछले वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में जो महत्व का काम हुआ है, उसकी आज भी, जबकि राष्ट्रीय शिक्षाप्रणाली की खोज ही चल रही है, विशेष उपयोगिता है। काशी विद्यापीठ के अध्यापक, आचार्य और कुलपति की हैसियत से आपने अपनी विद्वत्ता, उदारता और चरित्र के द्वारा अध्यापन और प्रशासन का जो उच्च आदर्श् कायम किया है, वह अनुकरणीय है। अपने सहयोगी श्री संपूर्णानंद जी के आग्रह पर आचार्य जी ने संयुक्त प्रांत के फिर नाम बदल जाने पर, उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा समिति की अध्यक्षता की थी। इस समिति के जरिए कई एक महत्वपूर्ण सुझाव आपने दिए थे। इसके अलावा, संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन और अनुसंधान को बढ़ाने पर आप बराबर जोर देते थे।


बौद्धदर्शन के अध्ययन में आचार्य जी की विशेष रुचि और गति रही है। आजीवन वे बौद्धदर्शन का अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में "बौद्ध-धर्म-दर्शन" उन्होंने पूरा किया। "अभिधर्मकोश" भी प्रकाशित कराया था। "अभिधम्मत्थसंहहो" का भी हिंदी अनुवाद किया था। प्राकृत तथा पालि व्याकरण हिंदी में तैयार किया था। किंतु वह मिल नहीं रहा है। संभव है, उनकी किताबों वगैरह के साथ कहीं मिले। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माणकार्य भी उन्होंने प्रांरभ किया था। पेरुंदुराई के विश्रामकाल में आपने 400 शब्दों को व्याख्यात्मक कोश बनाया था, किंतु आकस्मिक निधन से यह काम पूरा न हो सका।


किंतु प्रकाशित रचनाओं से शायद अधिक बेजोड़ उनके भाषण रहे हैं। इस बात का कई बार विचार हुआ कि उनके भाषणों का संग्रह किया जाए, किंतु व्यवस्था न हो सकी और इस तरह ज्ञान की एक अमूल्य निधि खो गई।


राजनीति में प्रवेश


आचार्य नरेन्द्र देव विद्यार्थी जीवन से ही राजनीति की गतिविधियों में भाग लेने थे। वे अपने गरम विचारों के व्यक्तित्व के लिए जाने जाते थे। सन 1916 से 1948 तक वे 'ऑल इंड़िया कांग्रेस कमेटी' के सदस्य रहे थे। नेहरू जी के साथ 'कांग्रेस वर्किंग कमेटी' के भी वे सक्रिय सदस्य रहे।


जेल यात्रा


सन 1930, 1932 और 1942 के आंदोलनों में आचार्य नरेन्द्र देव ने जेल यात्राएँ कीं। वे 1942 से 1945 तक जवाहरलाल नेहरू जी आदि के साथ अहमदनगर क़िले में भी बंद रहे। यहीं पर उनके पांड़ित्य से प्रभावित होकर नेहरूजी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "डिस्कवरी ऑफ़ इंड़िया" की पांडुलिपि में उनसे संशोधन करवाया।


कांग्रेस से त्यागपत्र


कांग्रेस को समाजवादी विचारों की ओर ले जाने के उद्देश्य से सन 1934 में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में 'कांग्रेस समाजावादी पार्टी' का गठन हुआ था। जयप्रकाश नारायण इसके सचिव थे। गांधीजी आचार्य का बड़ा सम्मान करते थे। पहली भेंट में ही उन्होंने आचार्य को 'महान नररत्न' बताया था। कांग्रेस द्वारा यह निश्चय करने पर कि उसके अंदर कोई अन्य दल नहीं रहेगा, समाजवादी पार्टी के अपने साथियों के साथ आचार्य नरेन्द्र देव ने भी कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। पार्टी छोड़ने के साथ ही पार्टी के टिकट पर जीती विधान सभा से त्याग-पत्र देकर इन्होंने राजनीतिक नैतिकता का एक नया आदर्श उपस्थित किया था।


भाषा विद्वान 


राजनीतिक चेतना और विद्वता का नरेन्द्र देव में असाधारण सामंजस्य था। वे संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, पाली, बंगला, फ़्रेंच और प्राकृत भाषाएँ बहुत अच्छी तरह जानते थे। 'काशी विद्यापीठ' के बाद आचार्य नरेन्द्र देव ने 'लखनऊ विश्वविद्यालय' और 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' के कुलपति के रूप में शिक्षा जगत् पर अपनी छाप छोड़ी।


मुख्य कृतियाँ


राष्ट्रीयता और समाजवाद, समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन, सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद, राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास, युद्ध और भारत, किसानों का सवाल, समाजवाद और राष्ट्रीय क्रांति, समाजवाद, बोधिचर्चा तथा महायान, अभीधर्म कोष  


संपादन :


विद्यापीठ (त्रैमासिक पत्रिका), समाज (त्रैमासिक पत्रिका), जनवाणी (मासिक पत्रिका), संघर्ष, समाज (साप्ताहिक पत्र)

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